Kavita Jha

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पंचामृत सी पंचकन्या #लेखनी नॉन स्टॉप कहानी प्रतियोगिता-09-May-2022

                    अध्याय -11
                  देवता या राक्षस
जीवन की रफ्तार थोड़ी धीमी हो गई थी आनंद के जाने के बाद नीलिमा का एक एक दिन सदियों सा बीतता। पाँच बच्चियों को अकेले पालना बहुत ही कठिन था, बच्चियां भी बड़ी हो रही थी उनकी पढ़ाई लिखाई भोजन वस्त्र सब तो अकेले ही संभालना था।
शिखा और रिशा जब एक साथ बिमार पड़ी दोनों को डेंगू हो गया था हालत बहुत नाजुक थी। सरकारी अस्पताल में जगह ना मिली, बच्चियों के ईलाज के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकती। बस उसी बीच उसके पड़ोस में रहने वाले निरोज पांडेय ने निशा और कंचन दोनों को अपनी हवस का शिकार बना लिया और किसी से कुछ ना कहने की धमकी दी। अच्छा पड़ोसी हूँ दिखाने के लिए नीलिमा की मदद करने पहुँच गया अस्पताल में जहाँ वो अपनी दोनों बिमार बच्चियों को लिऐ नर्स डाॅक्टरों से विनती कर गिड़गिड़ा रही थी।
निरोज तो उस समय मुझे देवता का भेजा हुआ दूत लगा नीलिमा याद करते हुऐ अपने आँसुओं को पोछती है आँचल के कोर से। कितनी गलत थी मैं या मजबूर थी,  अच्छा बुरा समझने की क्षमता ही खो चुकी थी।
उसने तुरंत ईलाज के पैसों से मेरी मदद की, डाॅक्टरों से बात करता मेरी बच्चियों का ध्यान रखता।
वो अस्पताल में बिताऐ 25 दिन और उसके किऐ एहसानों से मैं दबी हुई थी। उसकी पत्नी मेरी निशा और कंचन का ध्यान रखती, पंचम तो उस समय बहुत छोटी थी तो मेरे पास अस्पताल में ही रहती। निशा जो बारह वर्ष की और  कंचन आठ वर्ष की हो गई थी, दोनों की बहुत चिंता होती लड़की जात है कैसे मैं पड़ोसी पर विश्वास करूं पर उसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था।
निरोज और उसकी पत्नी मुझसे अस्पताल में मिलने आते तो संग निशा और कंचन भी होती। वो चुप रहती मुझसे लिपट रोती माँ जल्दी घर चलो, उनके वो आँसू और वो डर बहुत कुछ बता रहा था।
शिखा और रिशा की सेहत में सुधार हो रहा था, दोनों को डेंगू के कारण ब्रेन फीवर हो गया था। वो निरोज और  उसकी पत्नी ही थी जिनके कारण मेरी दोनों बच्चियां बच पाई और हम अस्पताल से घर आ गए। हजारों का अस्पताल का बिल हमारे खाने पीने का सारा इंतजाम वो निःस्वार्थ क्यों कर रहा था।
मुझे तो देव तुल्य ही लग रहा था पर जब घर पहुँची निशा की आँखों में सच्चाई और डर देख मैं घबरा गई। कंचन तो मुझसे लिपट रोती माँ अब कभी छोड़ कर मत जाना पांडे अंकल गंदे हैं, निशा उसके मुँह पर हाथ रखती और उसे बोलने से मना करती।
मेरी बड़ी बिटिया शायद समय से पहले ही बड़ी हो गई थी और दुनियादारी समझने लगी थी। जिस आदमी ने मेरी दो बच्चियों की जान बचाई और दो को अपनी हवस का शिकार। मैं उसके एहसान तले दबी थी, हजारों का कर्जा कैसे उतारती।
आखिर वो भयावह रात ... मैं खुद को किसी और को समर्पित कर चुकी थी। निरोज एक ग्राहक लाया था मेरे लिए..
वो बोला," मेरे एहसानों की कीमत नहीं चुकाऐगी, पचास हजार एडवांस ले चुका हूँ, बस तूँ हर रात...  नहीं तो अपनी निशा... बहुत मस्त है रे। "
मन तो किया खीच कर उसके गालों पर जोरदार चाँटा मारूं, मुँह पर थूक दूं। पर गुस्से और स्त्रीत्व दोनों को निगल गई। माँ जो थी, अपनी आँखों के सामने बच्चियों को कैसे धकेलती उस दलदल में।
वो एक महीना हर रात नया ग्राहक.... बस ब्याज समेत उसके पैसे लौटाऐ और भविष्य के लिए अपनी बच्चियों के लिए जोड़ने लगी।
निरोज एक दिन पुलिस फायरिंग में मारा गया, वो लड़कियों को देह व्यापार के लिए विदेश भी भेजता। मैं जल्द से जल्द उसके चंगुल से छूटना चाहती आखिर भगवान ने मेरी सुन ली। उसकी पत्नी ने ही पुलिस को उसके बारे में बताया, अपने ही पति की मौत पर खुशियाँ मनाती वो मुझे वहां से उसने ही दलदल से निकाला।
मैं दिल्ली छोड़ देहरादून आ गई ,अपनी पाँचों बच्चियों को लेकर। पैसे काफी जोड़ लिऐ थे, चाहे जिस्म बेचकर ही पर पैसा तो जरुरी था। यहाँ नई जगह नई नौकरी मिल गई गर्लस हाॅस्टल में  वार्डन की। बच्चियों की पढ़ाई भी अच्छी चलने लगी। हम सब भुला देना चाहते थे।

क्रमशः

कविता झा'काव्या कवि'

# लेखनी

##लेखनी नॉन स्टॉप 2022 प्रतियोगिता

29.06.2022


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2 Comments

Seema Priyadarshini sahay

01-Jul-2022 10:32 AM

बहुत ही खूबसूरत भाग

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Gunjan Kamal

30-Jun-2022 01:41 AM

शानदार भाग

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